अष्टांग योग/आसन क्या होता है? / Ashtang Yoga In Hindi

अष्टांग योग/आसन क्या होता है? / Ashtang Yoga In Hindi :

ashtanga yoga in hindi

महर्षि पतंजलि ने चित्तवृत्ति के निरोध या मन के भटकाव को रोकना इसे ही योग बताया है। चित्तवृत्ति के निरोध के लिए जो उपाय बताया गया है वो अष्टांग योग है जिसमें आठ अंग बताये गए है। इस योग को करने से साधक के चित्त के दोष दूर होंगे और विवेक ख्याति के बाद ज्ञान प्राप्त होता है। महर्षि पतंजलि ने चित्त को दर्पण के सामान माना है और कहा है कि इस दर्पण में विकारों और वासनाओं की धूल जम गई है अष्टांग योग से इस दर्पण में जमी धूल को हटाने पर दर्पण साफ़ हो जायेगा जिससे आत्म दर्शन संभव हो सकेगा।

अष्टांग योग के पहले के पांच अंग यम, नियम, आसन, प्राणायाम तथा प्रत्याहार है जो ‘बहिरंग’ माने जाते है और शेष तीन अंग धारणा, ध्यान, समाधि ये ‘अंतरंग’ नाम से जाने जाते हैं। जब योगी बहिरंग साधना  में निपुर्ण हो जाता है तब वह अंतरंग साधना पर केंद्रित हो पाता है। यम का अर्थ होता है संयम जो पांच प्रकार का होता है – अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह। नियम के भी पांच प्रकार बताये गए है – शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय तथा ईश्वर प्रणिधान। सुख पूर्वक बैठकर देह को स्थिर करना आसन कहा जाता है जिससे शरीर की शुद्धि होती है। प्राणायाम से स्वास की शुद्धि होती है। प्रत्याहार से मनुष्य कि इंद्रिया शुद्ध होती है। धारणा मन की शुद्धि के लिए आवश्यक है। ध्यान करने से अस्मिता सुधरती है, तथा समाधि से बुद्धि का सुधार होता है। इन आठो के अभ्यास से ही योग का लाभ प्राप्त होता है और इन सब की शुद्धि से चित्त निर्मल हो जाता है जिससे आत्मा का ज्ञान हो जाता है।

 

यम – अष्टांग योग में पहला यम होता है जो बाहरी आचरण में सुधार करता है। जब आचरण शुद्ध होता है तो मन भी शुद्ध होता है जिससे योग करने वाला संस्कारी बनता है। यम पांच होते है –

(1) अहिंसा – मन, वचन व शरीर से किसी भी प्राणी को किसी भी प्रकार का दुःख न देना ‘अहिंसा’ है।

(2) सत्य – जैसा देखा, सुना और अनुभव किया उसे वैसा ही कहना सत्य होता है। सत्य कहने से यदि किसी का अहित होता हो तो ऐसा सत्य ना कहना ही सही होता है।  हिंसा, छल, कपट रहित व्यवहार ही सत्य व्यव्हार माना जाता है।  

(3) अस्तेय –  चोरी न करना अस्तेय है। किसी की संपत्ति को छल कपट से, झूठ बोलकर, बेईमानी से हथियाना चोरी है।

(4) ब्रह्मचर्य – इन्द्रिय सुखों को त्यागना ब्रह्मचर्य कहा जाता है। महर्षि पतंजलि ने मन, वाणी तथा शरीर से कामवासना, मैथुन को त्यागने को ब्रह्मचर्य कहा है।

(5) अपरिग्रह – आवश्यकता से ज्यादा धन-संपत्ति एकत्रित करने से मन कई प्रकार की उलझनों में पड़ जाता है, जिससे वह स्थिर नहीं रह पाता  है। जब मन स्थिर रहता है तभी योग साधना सिद्ध होना संभव है। इसलिए योगी को सात्विक जीवन जीना चाहिए।

 

नियम – नियमों का पालन करने से आंतरिक शुद्धि होती है। नियम पांच है –

(1) शौच – सात्विक भोजन करना, शरीर को साफ़ रखना, सभी के साथ अच्छा व्यवहार करना, अपने विचारों में पवित्रता रखना, राग, द्वेष, जलन, क्रोध आदि का त्याग करना शौच कहा जाता  है।

(2) संतोष – जिस भी स्थिति में रहना पड़े उसमें संतुष्ट रहना ही संतोष है।

(3) तप – अष्टांग योग करते समय जो शारीरिक एवं मानसिक कष्ट प्राप्त होते है उन्हें ईश्वर की मर्जी समझकर स्वीकार करना, उपवास, कर्तव्य पालन, संयम आदि जितने भी कर्म है उन्हें ईमानदारी से करना तथा उसमें जो भी कष्ट हो उन्हें सहना तप है।

(4) स्वाध्याय – उन किताबों को पढ़ना जिससे योग में रूचि बढे स्वाध्याय है।

(5) ईश्वर प्रणिधान – अपना मन, बुद्धि, अहंकार सहित पूरा शरीर ईश्वर को समर्पित करदेना ईश्वर प्रणिधान है।   

 

आसन – जिसमें सुखपूर्वक स्थिर होकर बैठ सके वह आसन है।

प्राणायाम – आसन के सिद्ध होने पर श्वास प्रश्वास की गति रुकना प्राणायाम है।

प्रत्याहार – महर्षि पतंजलि के अनुसार चित्त की चंचलता का कारण इन्द्रिया है जो हमेशा विकारों की तरफ होती है। इन इन्द्रियों को हठ पूर्वक वश में करना और चित्त को अंतर्मुखी बनाना प्रत्याहार है। प्रत्याहार से इन्द्रियों पर पूर्ण विजय पाई जा सकती है।

धारणा – चित्त को किसी एक विषय पर लगाये रखना धारणा है।

ध्यान – जिस विषय में चित्त लगा हुआ है उसी में उसे लगाये रखना ध्यान है।

समाधि – जिस विषय का ध्यान चित्त कर रहा है जब उसका स्वरुप शून्य  हो जाये और ध्येय मात्र की प्रतीति हो वह समाधि है। 

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